वो खिड़की
वो खिड़की
वो खिड़की देखो दूर से..
जहाँ रोशनी सी दिख रही..
जो खुली हुई हैं बाहर को..
और कुछ बिखरी हुई सी लग रही..
कुछ हवाओ का शोर था ऐसा..
खड़ खड़, खड़ खड़, कर रही..
वो राहें सुनसान,
मंज़िलें वीरान,
शायद इंतजार कर रही..
क्या रहता उस घर में कोई?
जहा खिड़की बस खड़क रही..
क्या दरवाजे पे दस्तक होगी?
जहाँ वो बेबस तड़प रही..
चीख रही मानो,
ज़माने से कुछ कह रही..
रोशनदान हैं कहते उसको,
और देखो.. रोशनी भी झलक रही..
पर अंधेरे में क्यों आख़िर,
वो भटक रही..
क्यों भटक रही ?
दरारे भी हैं आन पड़ी,
तूफ़ानों में झकझोर कर..
कुछ कीलें आपस में उलझ कर,
उन दरारों में ही जा फँसी..
वो खिड़की, टूटी बिखरी,
बस खड़ खड़ करती जा रही..
वो शक्सियत देखो दूर से..
जहाँ रोशनी सी दिख रही..
जो खुली हुई हैं बाहर को..
और कुछ बिखरी हुई सी लग रही..
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