घर में
घर में,
बस हम दोनो ही रहते थे,
एक वो और एक मैं,
प्यार बहुत था,
और तकरार भी,
और थोड़ी बहुत मार भी..
उसका मेरे सिवा ना कोई था,
मेरा बस,
एक वो ही तो सहारा था..
शाम ढले वो आता,
थका हारा बेचारा था..
मैं प्यार से जाता पास,
बस बगल मे जा बैठता..
वो सिर पे हाथ फेर के,
फिर कानो को था खींचता..
बिन बोले वो समझ था जाता,
कैसे बताऊं,
क्यूँ मैं उसको इतना चाहता..
बचपन से,
उसकी गोद मे खेला,
हर नखरे को मेरे उसने,
हँस-हँस के है झेला..
आज भी उसकी गोद,
मेरी पसंदीदा जगह हैं..
मेरे हँसने रोने की,
बस वो ही एक वजह हैं..
वो खाना खाए, तो मैं खाऊँ..
वो रोए तो मैं रोयूँ..
कभी मैं तकिया, तो कभी वो,
बिन उसके कैसे सोयूँ..
यूँ ही दिन गुज़र जाता,
इंतजार में..
रात में फिर बातें होती,
थोड़े थोड़े अंतराल में..
हम ही साथी इक दूजे के,
हम ही दुश्मन बनते..
मेरे इक बार भौंकनें पर,
फिर सौ जूते भी थे मिलते..
पर सच,
नींदें उसे भी ना आई,
जब मुझ पर मुसीबत आई..
मेरे बीमार होने पर, उसने भी,
रातें जाग कर बिताई..
क्योंकि,
घर में,
बस हम दोनो ही रहते थे,
एक वो और एक मैं..
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