Maa
माँ
कभी सुना हैं, एक अल्फ़ाज़,
जिसमे पूरी दुनिया समाती हैं..
जिसे पुकारते ही, कितनी सुकून भरी,
मुस्कुराहट आती हैं..
घर आते ही जिसे खोजता हूँ,
ना दिखे तो थोड़ा डरता हूँ..
फिर पूछता हूँ, माँ कब आएगी..
भले कोई काम ना हो,
बस माँ का दिखना ज़रूरी हैं..
उसके होने से हर खुशी,
ना होने से ज़िंदगी अधूरी हैं..
ना जाने कितने शब्दो को,
नया आयाम दिया हैं एक अल्फ़ाज़ ने..
सुकून, राहत, ज़िंदगी, भगवान,
कितने ही रूप छिपे हैं माँ में..
माँ, वो परछाई जिसने हर दफ़ा,
धूप से बचाया हैं..
माँ, वो रूह जिसने हर दफ़ा,
गिरने पे उठाया हैं..
माँ, वो पहरा जिसने हर दफ़ा,
मुश्किलो से बचाया है..
माँ, वो रात जिसने हर दफ़ा,
ख्वाब देखना सिखाया हैं..
माँ, वो किताब जिसने हर दफ़ा,
सही ग़लत सिखाया हैं..
कितना लिखूं जो ब्यान करे,
जो मेरी माँ ने मुझे बनाया हैं..
मैं जो भी हूँ, बस वही वज़ह,
सब उस से ही तो आया हैं..
कभी देखा है, एक शख्स,
जो हर दुख के बदले,
बस मुस्कुराहट ही देता हैं..
यूँ ही नही वो रब्ब भी उसे,
खुद अपना दर्जा देता हैं |
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