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लाल नीली बत्ती

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लाल   नीली   बत्ती भीड़ बहुत थी ,   और लंबी कतार थी ..   उस जाम में देखा ,   कुछ मची हाहाकार थी ..   वो चिल्ला रहा था ,   गला रूंधा हुआ सा था ..   उसकी आवाज़ से हर शख़्स ,   वाकिफ़ भी था ..   हर किसी को जल्दी थी ,   अपनी मंज़िल को पाने की ,   दफ़्तर से निकले जो थे ...   हर किसी को निकलना था ,   आगे इक दूजे से ,   गर्मी में   रुके जो थे ...   पर उसकी मंज़िल कुछ और थी ,   वो अब भी चिल्ला रहा था ,   उसे रास्ता तलाशना था ..   रफ़्तार की पाबंदी ना थी उसे ,   हर क़ानून तोड़ने की ,   इजाज़त भी थी उसे ..   पर फिर भी , बेबस सा ,   फँसा था उस भीड़ में ..   खुल जाएगा ये रास्ता ,   बस इतनी सी उम्मीद में ..   निगाहें ज़मीं थी , रंगीन बत्तियों पें ..   वो अकेला लाल नीला था ,   पीली बत्तियों में .....

वो खिड़की

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वो   खिड़की वो खिड़की देखो दूर से ..   जहाँ रोशनी सी दिख रही ..   जो खुली हुई हैं बाहर को ..   और कुछ बिखरी हुई सी लग रही ..   कुछ हवा ओ   का शोर था ऐसा ..   खड़ खड़ , खड़ खड़ , कर रही ..   वो राहें सुनसान ,   मंज़िलें वीरान ,   शायद इंतजार कर रही ..   क्या रहता उस घर में कोई ?   जहा खिड़की बस खड़क रही ..   क्या दरवाजे पे दस्तक होगी ?   जहाँ वो बेबस तड़प रही ..   चीख रही मानो ,   ज़माने से कुछ कह रही ..   रोशनदान हैं कहते उसको ,   और देखो .. रोशनी भी झलक रही ..   पर अंधेरे में क्यों आख़िर ,   वो भटक रही ..   क्यों भटक रही ?   दरारे भी हैं आन पड़ी ,   तूफ़ानों में झकझोर कर ..   कुछ कीलें आपस में उलझ कर ,   उन दरारों में ही जा फँसी ..   वो खिड़की , टूटी बिखरी ,   बस खड़ खड़ करती जा रही .. ...

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